सबका मंगल सबका भला हो ! गुरु चाहना ऐसी है !!इसीलिए तो आए धरा पर सदगुरु आसारामजी है !!
स्नातं तेन सर्व तीर्थम् दातं तेन सर्व दानम् कृतो तेन सर्व यज्ञो.....उसने सर्व तीर्थों में स्नान कर लिया, उसने सर्व दान दे दिये, उसने सब यज्ञ कर लिये जिसने एक क्षण भी अपने मन को आत्म-विचार में, ब्रह्मविचार में स्थिर किया।

Friday, October 22, 2010

ब्रह्मनिष्ठा का महत्व

श्रीमदाद्यशंकराचार्यविरचित
विवेक चूडामणि

मंगलाचरण
सर्ववेदांतसिद्धांतगोचरम तमगोचरम |
गोविंदम परमानंदम सदगुरूम प्रणतोस्म्यहम||१||
जो अज्ञेय होकर भी संपूर्ण वेदान्त के सिद्धांत -वाक्यों से जाने जाते हैं, उन परमानंदस्वरूप सद्गुरुदेव श्री गोविंद को मैं प्रणाम करता हूँ |
ब्रह्मनिष्ठा का महत्व
जंतूनाम नरजन्म दुर्लभमत: पुंसत्वम ततो विप्रता 
तसमादवैदिकधर्ममार्गपरता विद्वत्वमस्मातपरम |
आत्मनात्मविवेचनम स्वनुभवो ब्रह्मात्मना संस्थिति-
र्मुक्तिर्नो शतकोटिजन्मसु कृतै: पुण्येर्विना लभ्यते ||२||
जीवों को प्रथम तो नर जन्म ही दुर्लभ है, उससे भी पुरुषत्व और उससे भी ब्राह्मणत्व का मिलना कठिन है; ब्राह्मण होने से भी वैदिक धर्म का अनुगामी होना और उससे भी विद्वता का होना कठिन है | [यह सब होने पर भी] आत्मा और अनात्मा का विवेक, सम्यक अनुभव, ब्रह्मात्मभाव से स्थिति और मुक्ति - ये तो करोड़ों जन्मों में किए हुए शुभ कर्मों के परिपाक के बिना प्राप्त हो ही नहीं सकते |
दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम |
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुष संश्रय: ||३||
भगवतकृपा ही जिनकी प्राप्ति का कारण है वे मनुष्यत्व, मुमुक्षत्व (मुक्त होने की इच्छा) और महान पुरुषों का संग- ये तीनों ही दुर्लभ है |
लब्ध्वा कथन्चिन्नरजन्म दुर्लभं
तत्रापि पुन्स्त्वम श्रुतिपारदर्शनम |
य: स्वात्ममुक्तौ न यतेत मूढ़धी:
स ह्यात्महा स्वम विनिहंत्यसद्ग्रहात ||४||
   किसी प्रकार इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर और उसमें भी, जिसमें श्रुति के सिद्धांत का ज्ञान होता है ऐसा पुरुषत्व पाकर जो मूढ़बुद्धि अपने आत्मा की मुक्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता, वह निश्चय ही आत्मघाती है: वह असत में आस्था रखने के कारण अपने को नष्ट करता है |
इतः को न्वस्ति मूढ़ात्मा यस्तु स्वार्थे प्रमाद्यति |
दुर्लभं मानुषम देहम प्राप्य तत्रापि पौरुषं ||५||
दुर्लभ मनुष्य देह और उसमे भी पुरुषत्व को पाकर जो स्वार्थ साधन में प्रमाद करता है उससे अधिक मूढ़ और कौन होगा?

वदंतु शास्त्राणि यजन्तु देवान
कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तु देवता: |
आतमैक्यबोधेन विना विमुक्ति
र्न सिध्यति ब्रह्मशतांतरेअपि ||६||
भले हि कोई शास्त्रों की व्याख्या करे, देवताओं का यजन करे, नाना शुभ कर्म करे अथवा देवताओं को भजे, तथापि जब तक ब्रह्म और आत्मा की एकता का बोध नहीं होता तब तक सौ ब्रह्माओं के बीत जाने पर भी [अर्थात सौ कल्प में भी] मुक्ति नहीं हो सकती |
अमृतत्वस्य नाशास्ति वित्तेनेत्येव हि श्रुति: |
ब्रवीति कर्मणों मुक्तेर्हेतुत्वं स्फुटम यत:||७||  
क्योंकि 'धन से अमृतत्व की आशा नहीं है' यह श्रुति 'मुक्ति का हेतु कर्म नहीं है' यह बात स्पष्ट बताती है |

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