सबका मंगल सबका भला हो ! गुरु चाहना ऐसी है !!इसीलिए तो आए धरा पर सदगुरु आसारामजी है !!
स्नातं तेन सर्व तीर्थम् दातं तेन सर्व दानम् कृतो तेन सर्व यज्ञो.....उसने सर्व तीर्थों में स्नान कर लिया, उसने सर्व दान दे दिये, उसने सब यज्ञ कर लिये जिसने एक क्षण भी अपने मन को आत्म-विचार में, ब्रह्मविचार में स्थिर किया।

Tuesday, November 30, 2010

भगवान सूर्य किस देवता का ध्यान एवं पूजन करते हैं?

ब्रह्माजी बोले - याज्ञवल्क्य! एक बार मैंने भगवान सूर्यनारायण की स्तुति की । उस स्तुति से प्रसन्न होकर वे प्रत्यक्ष प्रकट हुए, तब मैंने उनसे पूछा कि महाराज ! वेद-वेदांगों में और पुराणों में आपका ही प्रतिपादन हुआ है। आप शाश्वत अज, तथा परब्रह्म स्वरूप है । यह जगत आप में ही स्थित है। गृहस्थाश्रम जिनका मूल है, ऐसे वे चारों आश्रमों वाले रात-दिन आपकी अनेक मूर्तियों का पूजन करते है। आप ही सबके माता-पिता और पूज्य है। आप किस देवता का ध्यान एवं पूजन करते है? मैं इसे समझ नहीं पा रहा हूँ, इसे मैं सुनना चाहता हूँ, मेरे मन में बड़ा कौतूहल है ।

भगवान सूर्य ने कहा - ब्राह्मन ! यह अत्यंत गुप्त बात है, किन्तु आप मेरे परम भक्त है, इसलिए मैं इसका यथावत वर्णन कर रहा हूँ- वे परमात्मा सभी प्राणियों में व्याप्त, अचल, नित्य, सूक्ष्म तथा इंद्रियातीत है, उन्हे क्षेत्रज्ञ, पुरुष, हिरण्यगर्भ, महान, प्रधान तथा बुद्धि आदि अनेक नामों से अभिहित किया जाता है। जो तीनों लोकों के एकमात्र आधार है, वे निर्गुण होकर भी अपनी इच्छा से सगुण हो जाते है, सबके साक्षी है, स्वत: कोई कर्म नहीं करते और न तो कर्मफल की प्राप्ति से संलिप्त रहते है। वे परमात्मा सब ओर सिर, नेत्र, हाथ, पैर, नासिका, कान तथा मुख वाले है, वे समस्त जगत को आच्छादित करके अवस्थित है तथा सभी प्राणियों में स्वच्छंद होकर आनंदपूर्वक विचरण करते है।

शुभाशुभ कर्म रूप बीजवाला शरीर क्षेत्र कहलाता है। इसे जानने के कारण परमात्मा क्षेत्रज्ञ कहलाते है। वे अव्यक्तपुर में शयन करने से पुरुष, बहुत रूप धारण करने से विश्वरूप और धारण-पोषण करने के कारण महापुरुष कहे जाते है। ये ही अनेक रूप धारण करते है। जिस प्रकार एक ही वायु शरीर में प्राण-अपान आदि अनेक रूप धारण किए हुए है और जैसे एक ही अग्नि अनेक स्थान-भेदों के कारण अनेक नामों से अभिहित की जाती है, उसी प्रकार परमात्मा भी अनेक भेदों के कारण बहुत रूप धारण करते है। जिस प्रकार एक दीप से हजारों दीप प्रज्वलित हो जाते है, उसी प्रकार एक परमात्मा से संपूर्ण जगत उत्पन्न होता है। जब वह अपनी इच्छा से संसार का संहार करता है, तब फिर एकाकी ही रह जाता है। परमात्मा को छोडकर जगत में कोई स्थावर या जंगम पदार्थ नित्या नहीं है, क्योंकि वे अक्षय, अप्रमेय और सर्वज्ञ कहे जाते है। उनसे बढ़कर कोई अन्य नहीं है, वे ही पिता है, वे ही प्रजापति है, सभी देवता और असुर आदि उन परमात्मा भास्करदेव की आराधना करते है और वे उन्हे सद्गति प्रदान करते है। ये सर्वगत होते हुए भी निर्गुण है। उसी आत्मस्वरूप परमेश्वर का मैं ध्यान करता हूँ तथा सूर्यरूप अपने आत्मा का ही पूजन करता हूँ। हे याज्ञवल्क्य मुने ! भगवान सूर्य ने स्वयं ही ये बातें मुझसे कही थी । (भविष्य पुराण - ब्राह्मपर्व , अध्याय 66-67)

Sunday, November 21, 2010

गुरु पूरे पाये, जग का दुख सुख क्यों सहना !

अजपा गायत्री

ऐसा सुमिरन कीजिये, सहा रहै लौ लाय ।
बिनु जिभ्या बिन तालुवै, अन्तर सुरत लगाय ॥1

हंसा सोहम तार कर, सुरति मकरिया पोय ।
उतार उतार फिरि फिरि चढ़ै, सहजों सुमिरन होय ॥2

बरत बांध कर धरन में, कला गगन में खाय ।
अर्ध उर्ध नट ज्यौं फिरै, सहजों राम रिझाय ॥3

लगे सुन्न में टकटकी, आसान पदम लगाय ।
नाभि नासिका माहिं करि, सहजों रहै समाय ॥4

सहज स्वांस तीरथ बहै, सहजो जो कोई न्हाय ।
पाप पुन्न दोनों छुटै, हरि पद पहुँचै जाय ॥5

हक्कारे उठि नाम सूँ, सक्कारे होय लीन ।
सहजों अजपा जाप यह, चरनदास कहि दीन ॥6

सब घट अजपा जाप है, हंसा सोहम पुर्ष ।
सुरत हिये ठहराय के, सहजों या विधि निर्ख ॥7

सब घट व्यापक राम है, देही नाना भेष ।
राव रंक चांडाल घर, सहजों दीपक एक ॥8॥ 
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गुरु पूरे पाये ....

नमो नमो गुरु तुम सरना ।
तुम्हारे ध्यान भरम भय भागै, जीते पांचौ और मना ॥1

दुख दारिद्र मिटै तुम नाउँ, कर्म कटै जो होहिं घना ।
लोक परलोक सकाल बिधि सुधरै, पग लागै आय ज्ञान गुना ॥ 2

चरण छूए सब गति मति पलटे, पारस जैसे लोह सुना ।
सीप परसि स्वाति भयो मोती, सोहट है सिर राज रना ॥ 3

ब्रह्म होय जीव बुधि नासै, जब कैसे होना मरना ।
अमर होय अमरापद पावै, यह गुर कहिए गुरु बचना ॥4

चरणदास गुरु पूरे पाये, जग का दुख सुख क्यों सहना ।
सहजों बाई ब्याध छुटाकर, आनंद मंगल में रहना ॥5

Saturday, November 13, 2010

श्री गीतगोविंद - दशावतार स्तुति

हे जगदीश ! मत्स्यावतार लेकर वेदों का उद्धार करने वाले,
कूर्मावतार से जगत को धारण करने वाले,
वराह अवतार से पृथ्वी मण्डल को धारण करने वाले,
नृसिंहरूप धारण कर हिरण्यकस्यपु का वाढ करने वाले,
वामनावतार से बाली को छलने वाले,
परशुराम रूप से क्षत्रियों का नाश करने वाले,
रामावतार लेकर रावण का विनाश करने वाले,
बलरामावतार में हल धारण करने वाले,
बुद्धावतार में दया का विस्तार करने वाले,
कल्की अवतार धारण कर म्लेच्छ का संहार करने वाले
(इस प्रकार दश विधि अवतारधारी)
श्रीकृष्णचंद्र को प्रणाम है।
हे सूर्यमण्डल के आभूषण !
(अर्थात सूर्य में जो तेज है वह आपही का है)
हे सांसारिक दुःख का विनाश करने वाले
(अर्थात संसार का आवागमन मिटानेवाले),
हे मुनिजनों के मानस (चित्त) के हंस स्वरूप !
हे देव!, कालिय नाम सर्पराज के मद को नष्ट करनेवाले!
भक्तजनों के आनंददाता !
हे यदुकुलरूपी कमल के सूर्य !
हे मधु और मुरनरक नामक असुरों के विनाशक!
हे गरुड़वाहन!
हे देवताओं की क्रीडा आदि के कारण!
हे निर्मल कमल के पत्र के समान विशाल नेत्रोंवाले!
हे संसार रूपी जाल से छुड़ानेवाले !
हे त्रिलोकी रूप गृह के निधान स्वरूप !
हे जानकीजी से आभूषित !
हे दूषण नाम राक्षसराज के संहारक!
हे रण में रावण को शांत करने वाले,
नवीन मेघ के सदृश सुंदर !
हे मंदराचल को धारण करनेवाले !
हे लक्ष्मी के मुखरूपी चंद्रमा के चकोर !
हे देव ! हम लोग आपके चरणों में प्रणाम करते हैं ।
यह आप जानिए और प्रणत हम लोगों का कल्याण करें !
आपकी जय हो ! हे देव ! हे हरे ! आपकी जय हो !
श्री जयदेव कवि का बनाया हुआ, मंगलकारी मनोहर गीत श्रवण या पढ़नेवालों को आनंद दाता है । (श्री गीतगोविंद द्वितीय प्रबंध)

Wednesday, November 3, 2010

विषयों को हमने नहीं भोगा !!!

भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता स्तपो न तप्तं वयमेव तप्ता: । 
कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णावयमेव जीर्णा: ॥ 
विषयों को हमने नहीं भोगा किन्तु विषयों ने हमारा भोग कर दिया, हमने तप को नहीं तपा किन्तु तप ने हमें तपा डाला। काल का खात्मा न हुआ किन्तु हमारा ही खात्मा हो चला। तृष्णा का बुढ़ापा न आया पर हमारा ही बुढ़ापा आ गया।। 12॥


क्षान्तं न क्षमया गृहोचितसुखं त्यक्तं न संतोषत: ।
सोढा दु:सहशांतवाततपनक्लेशा न तप्तं तपः ॥
ध्यातं वित्तमहर्निशं नियमितप्रार्णेर्न शम्भो: पदं । 
तत्ततकर्मकृतं यदेव मुनिभिस्तैस्तै: फलैर्वंचितम ॥
क्षमा तो हमने की किन्तु धर्म के ख्याल से नहीं की। हमने घर के सुख चैन तो छोड़े परंतु संतोष से नहीं छोड़े। हमने सर्दी, गर्मी और हवा के न सह सकने योग्य दुख तो सहे किन्तु हमने ये सब दुख ताप की गरज से नहीं, दरिद्रता के कारण सहे। हम दिन रात धन के ध्यान में लगे रहे किन्तु प्राणायाम क्रिया द्वारा शम्भु के चरणों का ध्यान नहीं किया। हमने काम तो सब मुनियों जैसे किए परंतु उनकी तरह फल हमें नहीं मिले॥ 13॥ 


बलिभिर्मुखमाक्रांतं पलितैरंकितं शिर: । 
गात्राणि शिथिलायंते तृष्णैका तरुणायते ॥ 
चेहरे पर झुर्रियाँ पढ गई, सिर के बाल पक कर सफ़ेद हो गए, सारे अंग ढीले हो गए पर तृष्णा तो तरुण होती जाती है।। 14॥


येनैवाम्बरखंडेन संवीतो निशि चंद्रमा। 
तेनैव च दिवा भानुरहो दौर्गत्यमेतयो:॥

आकाश के जिस टुकड़े को ओढ़ कर चंद्रमा रात बिताता है उसी को ओढ़कर सूर्य दिन बिताता है। इन दोनों की कैसी दुर्गति होती है।। 15॥


अवश्यं यातारश्चिरतरमूषित्वाSपि विषया 
वियोगे को भेदस्त्यजति न जानो यत्स्वयममून्। 
व्रजन्त: स्वातंत्र्यादतुतलपरितापाय मनस: 
स्वयं तयक्त्वा ह्येते शमसुखमनन्तं विदधति ॥  
विषयों को हम चाहे जीतने दिनों तक क्यों न भोगें, एक दिन वे निश्चय ही अलग हो जायेंगे। तब मनुष्य उन्हे स्वयं, अपनी इच्छा से ही क्यों न छोड़ दे ? इस जुदाई में क्या फर्क है? अगर यह न छोड़ेगा तो वे छोड़ देंगे। जब वे स्वयं मनुष्य को छोड़ेंगे तब उसे बड़ा दुख और मन-क्लेश होगा । अगर मनुष्य उन्हे स्वयं छोड़ देगा तो उसे अनंत सुख और शांति प्राप्त होगी।।16॥ 


विवेकव्याकोशे विदधति शमं शाम्यति तृषा । 
परिश्वंगे तुंगे प्रसरतितरां सा परिणति: ।। 
जब ज्ञान का उदय होता है तब शांति की प्राप्ति होती है । शांति की प्राप्ति से तृष्णा शांत हो जाती है किन्तु वही तृष्णा विषयों के संसर्ग से, बेहद बढ़ती है अर्थात विषयों से तृष्णा कभी शांत नहीं हो सकती ॥17॥