दिक्कालाद्य नवच्छिना अनंत चिन्मात्र मूर्तये ।
स्वानुभूत्येक मानाय नम: शांताय तेजसे ॥
जो दसों दिशाओं और तीनों कालों में परिपूर्ण है, जो अनंत हैं, जो चैतन्य स्वरूप है, जो अपने ही अनुभव से जाना जा सकता है, जो शांत और तेजोमय है, ऐसे ब्रह्म रूप परमात्मा को नमस्कार ॥
बोद्धारो मत्सरग्रस्ता: प्रभव: स्मयदूषिता: ।
अबोधोपहाताश्चान्ये जीर्णमंगे सुभाषितम ॥
जो विद्वान है, वे ईर्ष्या से भरे हुए है, जो धनवान है, उनको अपने धन का गर्व है । इसके सिवा जो और लोग है, वे अज्ञानी है। इसलिए विद्वतापूर्ण विचार, सुंदर-सुंदर सारगर्भित निबंध या उत्तम काव्य शरीर में ही नष्ट हो जाते है।
न संसारोत्पन्नचरितमनुपश्यामि कुशल।
विपाक: पुण्यानां जनयति भयं मे विमृशत: ॥
महिम्न: पुण्यौघेश्चिरपरिगृहीताश्च विषया: ।
महान्तो जायन्ते व्यसनमिव दातुं विषयिणाम ॥
मुझे संसारी कामों में जरा भी सुख नहीं दिखता। मेरी राय में तो पुण्यफल भी भयदायक है। इसके सिवा, बहुत से अच्छे-अच्छे पुण्यकर्म करने से जो विषय-सुख के समान प्राप्त किए गए और चिरकाल तक भोगे गए है, वे भी विषय-सुख चाहनेवालों को, अंत समय में, दुखों के ही कारण होते है।
उत्खातं निधिशंकया क्षितितलं ध्माता गिरेर्धातवो ।
निस्तीर्ण: सरिताम्पति: र्नृपतयो यत्नेन संतोषिता: ॥
मंत्राराधनतत्परेण मनसा नीता: श्मशाने निशा:।
प्राप्त: काणवराटकोअपि न मया तृष्णेअधुना मुञ्च॥
धन मिलने की उम्मीद से मैंने जमीन के पेंदे तक खोद डाले, अनेक प्रकार की पार्वतीय धातुएँ फूँक डाली, मोतियों के लिए समुद्रों की भी थाह ले आया, राजाओं को राजी रखने में भी कोई कमी न रखी, मंत्र-सिद्धि के लिए रात-रात श्मशान में एकाग्र बैठा हुआ जप करता रहा, पर अफसोस की बात है कि उतनी आफतें उठाने पर भी एक फूटी कौड़ी तक न मिली । इसलिए हे तृष्णे! अब तो तू मेरा पीछा छोड़ !
सुंदर भव्य ज्ञान
ReplyDeleteॐ
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