सबका मंगल सबका भला हो ! गुरु चाहना ऐसी है !!इसीलिए तो आए धरा पर सदगुरु आसारामजी है !!
स्नातं तेन सर्व तीर्थम् दातं तेन सर्व दानम् कृतो तेन सर्व यज्ञो.....उसने सर्व तीर्थों में स्नान कर लिया, उसने सर्व दान दे दिये, उसने सब यज्ञ कर लिये जिसने एक क्षण भी अपने मन को आत्म-विचार में, ब्रह्मविचार में स्थिर किया।

Friday, October 22, 2010

नारदकृत स्तुति

हे क़ृष्ण! हे कृष्ण! हे अपरिछिन्नस्वरूप! हे योगेश्वर! हे जगदीश्वर! हे वसुदेव! हे जगन्निवास! हे यादवश्रेष्ठ! हे प्रभो! आप जीवों की भाँति परिच्छिन्न नहीं है, किन्तु घट-घट-व्यापी एक आत्मा है ||

जैसे काष्ठों में अग्नि रहती है वैसे ही सब प्राणीयों में आप स्थित है, तो भी अतिगूढ़ होने के कारण आपको वे नहीं देख पाते: क्योंकि आप बुद्धिरूप गुहा मे रहने वाले सबके साक्षी महापुरुष ईश्वर है ||

आपको किसी साधन की आवश्यकता नहीं, आप स्वतंत्र सत्यसंकल्प और ईश्वर है
आप पहले अपनी मयशक्ति से गुणों (सत्व,रज,तम) को उत्पन्न करते है, फिर उनसे संपूर्ण ब्रह्माण्ड की सृष्टि, पालन और संहार करते है ||
 
वही आप राजारूपी दैत्य, प्रमथ और राक्षसों का संहार करने के लिए और धर्म मर्यादा की रक्षा के लिए प्रकट हुए है ||

इस घोड़े के रूप को धारण करने वाले केशी दैत्य को आपने अनायास मार डाला, यह अच्छा ही हुआ जिसके हिनहिनाने से भयभीत देवता स्वर्ग को छोडकर भाग जाते थे ||
 
हे प्रभो! मैं पर्सो चाणूर, मुष्टिक, अन्यान्य योद्धाओं, कुवलयापीड़ हाथी और कंस को आपके हाथ से मारे हुए देखूंगा ||
 
इसके पश्चात शंखासुर, कालयवन, मूर और नरकासुर का वाढ, पारिजातवृक्ष का हरण तथा इंद्रा का पराजय देखूंगा ||

फिर पराक्रम ही जिनका मूल्य है अर्थात पराक्रम से पायी हुई राजकन्याओं के साथ विवाह देखूंगा और हे जगत्पते! तदनंतर द्वारका में राजा नृग का पाप से (गिरगिट योनि से) छुटकारा पाना देखूंगा ||

जांबवती के साथ स्यमंतक मणि को लाना और ब्राह्मण के मारे हुए पुत्रों को महाकाल से लाकर उसे देना, पौण्ड्रक का वध, काशीपुरी का दहन, दंतवक्त्र का वध, राजसूय यज्ञ में शिशुपाल का वध और द्वारका में रहते हुए पृथ्वी पर कवियों द्वारा गाये जाने योग्य आप जो-जो पराक्रम पूर्ण कार्य करेंगे उन सबको देखूंगा ||

फिर पृथ्वी के भार को हरने वाले कालरूप आपको अर्जुन के सारथी के रूप में कई अक्षौहिणी सेनाओं का संहार करते हुए देखूंगा ||

केवल शुद्ध ज्ञानमूर्ति परमानंदरूप, अपनी स्थिति से आप्तकाम, सत्यसंकल्प तथा अपनी चेतनशक्ति से रची हुई माया के कार्यरूप गुनप्रवाह से सदा निवृत आपको नमस्कार है ||

आप ईश्वर है और दूसरे के वश में नहीं रहनेवाले है अतएव आपने अपने अधीन रहने वाली माया से संपूर्ण विशेषों की (यादवों की) रचना की है और इस समय क्रीड़ा के लिए मनुष्य शरीर धारण किया है मैं, यादव, वृष्णि और सात्वतों में सर्वश्रेष्ठ आपको नमस्कार करता हूँ ||

(श्रीमदभागवत स्कन्ध 10, अध्याय 37)

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