यदि देहम् पृथक्कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि ।
अधुनैव सुखी शान्त: बंधमुक्तो भविष्यसि ॥ 4॥
अर्थ : अगर तू देह को अलग करके और चैतन्य आत्मा में विश्राम करके अर्थात चित्त को एकाग्र करके स्थित है तो अभी तू सुखी और शान्त होता हुआ बन्ध से मुक्त हो जावेगा ॥
हे राजन! जब तू देह से आत्मा को पृथक विचार करके और अपने आत्मा में चित्त को स्थिर करके स्थिर हो जाएगा तब तू सुख और शांति को प्राप्त होवेगा। जब तक चिदजड़ग्रन्थि का नाश नहीं होता है अर्थात परस्पर के अध्यास का नाश नहीं होता है, तब तक ही जीव बंधन में है। जिस काल में अध्यास का नाश हो जाता है उसी काल में जीव मुक्त होता है। शिवगीता में भी इसी वार्ता को कहा है-
मोक्षस्य न हि वासोsस्ति न ग्रामन्तरमेव वा ।
अज्ञानहृदयग्रन्थि नाशो मोक्ष इति स्मृत: ॥ 1॥
मोक्ष का किसी लोकांतर में निवास नहीं है, और न किसी गृह या ग्राम के भीतर मोक्ष का निवास है किन्तु चिदजड़ग्रन्थि का नाश ही मोक्ष है अर्थात जड़ चेतन का जो परस्पर अध्यास है, उस अध्यास के जो जड़ अंतःकरण के कर्तृत्व भोक्तृत्वादिक धर्म है, वे आत्मा में प्रतीत होते है एवं आत्मा को जो चेतनतादिक धर्म है, वे भी अग्नि में तपाये हुए लोहपिंड की तरह अंतःकरण में प्रतीत होने लगते है। याने जब लोहे का पिंड अग्नि में तपाया हुआ लाल हो जाता है और हाथ लगाने से वह हाथ को जला देता है तब लोग ऐसा कहते है – देखो, यह अग्नि कैसा गोलाकार है, लोहे जैसा जलता है किन्तु जलना लोहे का धर्म नहीं है और गोलाकार धर्म अग्नि का नहीं है किन्तु परस्पर दोनों का तादात्म्य-अध्यास होने से अग्नि का जलाना रूप धर्म लोहे में आ जाता है और लोहे का गोलाकार धर्म अग्नि में चला जाता है वैसे ही अंतःकरण के साथ आत्मा का तादात्म्य अध्यास होने से जब आत्मा के चेतन आदिक धर्म अंतःकरण में आ जाते है और अंतःकरण के कर्तृत्व-भोक्तृत्वादिक धर्म आत्मा में चले जाते हैं तब पुरुष अपने आत्मा को कर्ता और भोक्ता मानने लग जाता है और उसी से जन्म-मरण रूपी बंधन को प्राप्त होता है। जब आत्मज्ञान करके अपने को अकर्ता, अभोक्ता, शुद्ध और असंग मानता है तब स्वयं साक्षी होकर अंतःकरण का भी प्रकाशक होता है और तब ही अध्यास का नाश हो जाता है। अध्यास के नाश का नाम ही मुक्ति है, इसके अतिरिक्त मुक्ति कोई वस्तु नहीं है ॥4॥
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