सबका मंगल सबका भला हो ! गुरु चाहना ऐसी है !!इसीलिए तो आए धरा पर सदगुरु आसारामजी है !!
स्नातं तेन सर्व तीर्थम् दातं तेन सर्व दानम् कृतो तेन सर्व यज्ञो.....उसने सर्व तीर्थों में स्नान कर लिया, उसने सर्व दान दे दिये, उसने सब यज्ञ कर लिये जिसने एक क्षण भी अपने मन को आत्म-विचार में, ब्रह्मविचार में स्थिर किया।

Friday, October 22, 2010

ज्ञानोपलब्धि का उपाय

श्रीमदाद्यशंकराचार्यविरचित

विवेक चूडामणि




अतो विमुक्त्यै प्रयतेत विद्वान
संन्यस्तबाह्यार्थसुखस्पृह: सन
सन्तं महान्तं समुपेत्य देशिकं
तेनोपदिष्टार्थसमाहितात्मा ||8||

इसलिए विद्वान संपूर्ण बाह्य भोगों की इच्छा त्यागकर संत शिरोमणि गुरुदेव की शरण जाकर उनके उपदेश किए हुए विषय मे समाहित होकर मुक्ति के लिए प्रयत्न करे


उद्धरेदात्मनात्मानम मग्नं संसारवारिधौ
योगारूढ़त्वमा साद्य सम्यग्दर्शन निष्ठया ||9||

और निरंतर सत्य वस्तु आत्मा के दर्शन में स्थित रहता हुआ योगारूढ़ होकर संसार समुद्र में दुबे हुए अपने आत्मा का आप ही उद्धार करे


सन्यस्य सर्वकर्माणि भवबंध विमुक्तये
यत्यतां पंडितैर्धीरैरात्माभ्यास उपास्थितै ||10||

आत्माभ्यास में तत्पर हुए धीर विद्वानों को संपूर्ण कर्मों को त्याग कर भवबंधन की निवृत्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए


चित्तष्य शुद्धये कर्म न तु वस्तूपलब्धये
वस्तुसिद्धिर्विचारेण न किंचित कर्मकोटिभिः ||11||
कर्म चित्त की शुद्धि के लिये ही है, वस्तूपलब्धि (तत्वदृष्टि) के लिये नहीं | वस्तु-सिद्धि तो विचार से ही होती है, करोड़ों कर्मों से कुछ भी नहीं हो सकता

सम्यग्विचारत: सिद्धा रज्जुतत्वावधारणा
भ्रान्त्योदित महासर्पभयदु:खविनाशिनी ||12||

भालिभांति विचार से सिद्ध हुआ रज्जु तत्व का निश्चय भ्रम से उत्पन्न हुए महान सर्पभयरूपी दुख को नष्ट करनेवाला होता है


अर्थस्य निश्चयों दृष्टो विचारेण हितोक्तित:
न स्नानेन न दानेन प्राणायामशतेन व ||13||

कल्याणप्रद उक्तियों द्वारा विचार करने से ही वस्तु का निश्चय होता देखा जाता है; स्नान, दान अथवा सैंकड़ों प्राणायामों से नहीं


अधिकारिनिरूपण

अधिकारिणमाशास्ते फलसिद्धि र्विशेषत:
उपाया देशकालाद्या: संत्यस्मिंसह कारिण: ||14|| 
विशेषत: अधिकारी को ही फल-सिद्धि होती है; देश, काल आदि उपाय भी उसमें सहायक अवश्य होते है

अतो विचार: कर्तव्यो जिज्ञासोरात्मवस्तुन:
समासाद्य दयासिंधुं गुरुं ब्रह्मविदुत्तमम ||15|| 

अतः ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ दयासागर गुरुदेव की शरण में जाकर जिज्ञासु को आत्मतत्व का विचार करना चाहिये


मेधावी पुरुषो विद्वानूहापोहविचक्षण:
अधिकार्यात्मविध्यायामुक्तलक्षणलक्षित: ||16|| 

जो बुद्धिमान हो, विद्वान हो और तर्क-वितर्क में कुशल हो, ऐसे लक्षणों वाला पुरुष ही आत्मविद्या का अधिकारी होता है


विवेकिनो विरक्तस्य शमादिगुणशालिन:
मुमुक्षोरेव हि ब्रह्मजिज्ञासायोग्यता मता ||17|| 

जो सदसदविवेकी, वैराग्यवान, शम-दमादि षटसंपत्तियुक्त और मुमुक्षु हो उसी में ब्रह्मजिज्ञासा की योग्यता मानी गयी है

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