श्री परमात्मने नम:
अष्टावक्र गीता
पहला प्रकरण
मूलम्
जनक उवाच
कथं ज्ञानमवाप्नो ति कथं मुक्तिर्भविष्योति ।
वैराग्यंन च कथं प्राप्त्मेतद्ब्रूहि मम प्रभो ।।1।।
अर्थ – हे स्वामिन ! कैसे पुरूष ज्ञान को प्राप्त होता है और मुक्ति कैसे होवेगी और वैराग्ये कैसे प्राप्त होवेगा ? इसको मेरे प्रति कहिये ।।
व्याख्या
राजा जनक अष्टावक्रजी से प्रथम 3 प्रश्न पूछते है-
1. हे प्रभो ! पुरुष आत्मज्ञान को कैसे प्राप्त होता है?
2. संसार बंधन से कैसे मुक्त होता है अर्थात जन्म-मरणरूपी संसार से कैसे छूटता है?
3. एवं वैराग्य को कैसे प्राप्त होता है?
राजा का तात्पर्य यह था कि :
ऋषि वैराग्य के स्वरूप को, उसके कारण को और उसके फल को;
ज्ञान के स्वरूप को, उसके कारण को और उसके फल को;
मुक्ति के स्वरूप को, उसके कारण को और उसके भेद को मेरे प्रति विस्तार से कहें ॥१॥
राजा के प्रश्नों को सुनकर अष्टावक्रजी ने अपने मन में विचार किया कि संसार में चार प्रकार के पुरुष हैं –
एक ज्ञानी, दूसरा मुमुक्षु, तीसरा अज्ञानी और चौथा मूढ़ ।
चारों में से राजा तो ज्ञानी नहीं है क्योंकि जो संशय और विपर्यय से रहित होता है और आत्मानंद करके आनंदित होता है वही ज्ञानी होता है परंतु राजा ऐसा नहीं है, किन्तु यह संशय से युक्त है ।
एवं अज्ञानी भी नहीं है क्योंकि जो विपर्यय ज्ञान और असंभावना आदि को करके युक्त होता है उसका नाम अज्ञानी है परंतु राजा ऐसा भी नहीं है । तथा जिसके चित्त में स्वर्गादिक फलों कि कामनाएँ भरी हों उसका नाम अज्ञानी है परंतु राजा ऐसा भी नहीं है ।
यदि ऐसा होता तो यज्ञादिक कर्मों के विषय में विचार करता, सो तो इसने नहीं किया है एवं मूढ़बुद्धि वाला भी नहीं है क्योंकि जो मूढ़बुद्धि वाला होता है वह कभी भी महात्मा को दंडवत प्रणाम नहीं करता है किन्तु वह अपनी जाति और धनादिकों के अभिमान में ही मरा जाता है, सो ऐसा भी राजा नहीं क्योंकि हमको महात्मा जानकर हमारा सत्कार कर अपने भवन में लाकर संसार बंधन से छूटने कि इच्छा करके जिज्ञासुओं कि तरह राजा ने प्रश्नों को किया है । इसी से सिद्ध होता है कि राजा जिज्ञासु अर्थात मुमुक्षु है और आत्मविद्या का पूर्ण अधिकारी है, और साधनों के बिना आत्मविद्या कि प्राप्ति नहीं होती, इस वास्ते अष्टावक्रजी प्रथम राजा के प्रति साधनों को कहते हैं ॥१॥
मूलम्
अष्टावक्र उवाच ।
मुक्तिमिच्छसि चेत्ता्त विषयान् विषवत्यज ।
क्षमार्ज्ज्वद यातोषसत्यं पीयूषवद़मज ।।2।।
अष्टावक्रजी जनकजी के प्रति कहते है कि हे तात! यदि तुम संसार से मुक्त होने कि इच्छा करते हो तो चक्षु, रसना आदि पाँच ज्ञानेन्द्रियों के जो शब्द, स्पर्श आदि पाँच विषय है उनको तू विष कि तरह त्याग दे क्योंकि जैसे विष के खाने से पुरुष मर जाता है वैसे ही इन विषयों के भोगने से भी पुरुष संसार चक्र रूपी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इसलिए मुमुक्षु को प्रथम इनका त्याग करना आवश्यक है और इन विषयों के अत्यंत भोगने से रोग आदि उत्पन्न होते है और बुद्धि भी मलिन होती है एवं सार-असार वस्तु का विवेक नहीं रहता है इसलिए ज्ञान के अधिकारी को अर्थात मुमुक्षु को इनका त्याग करना ही मुख्य कर्तव्य है ।
प्रश्न – हे भगवन् ! विषय भोग के त्यागने से शरीर नहीं रह सकता है और जीतने बड़े-बड़े ऋषि, राजर्षि हुए है उन्होने भी इनका त्याग नहीं किया है और वे आत्मज्ञान को प्राप्त हुए है और भोग भी भोगते रहे है फिर आप हमसे कैसे कहते है कि इनको त्यागो ।
उत्तर - अष्टावक्रजी कहते है कि हे राजन् ! आपका कहना सत्य है एवं स्वरूप से विषय भी नहीं त्यागे जाते है परंतु इनमें जो अति आसक्ति है अर्थात पांचों विषयों में से किसी एक के अप्राप्त होने से चित्त कि व्याकुलता होना और सदैव उसी में मन का लगा रहना आसक्ति है। उसके त्याग का नाम ही विषयों का त्याग है एवं जो प्रारब्धभोग से प्राप्त हो उसी में संतुष्ट होना, लोलुप न होना और उनकी प्राप्ति के लिए सत्य-असत्य भाषण आदि का न करना किन्तु प्राप्तिकाल में उनमें दोष दृष्टि और ग्लानि होनी और उसके त्याग कि इच्छा होनी और उनकी प्राप्ति के लिए किसी के आगे दीन न होना, इसी का नाम वैराग्य है । यह जनक जी के एक प्रश्न का उत्तर हुआ ।
प्रश्न – हे भगवन् ! संसार में नंगे रहने को, भिक्षा मांगकर खानेवाले को लोग वैराग्यवान् कहते है और उसमें जड़भरत आदिकों के दृष्टांत देते हैं , आपके कथन से लोगों का कथन विरुद्ध पड़ता है ।
उत्तर – संसार में जो मूढ्बुद्धिवाले हैं वे ही नंगे रहनेवालों और मांगकर खानेवालों को वैराग्यवान जानते है और नंगों से कान फूकवाकर उनके पशु बनते है परंतु युक्ति और प्रमाण से यह वार्ता विरुद्ध है ।
यदि नंगे रहने से ही वैराग्यवान होता हो तो सब पशु और पागल आदिकों को भी वैराग्यवान् कहना चाहिए पर ऐसा तो वे नहीं देखते हैं और यदि मांगकर खाने से ही वैराग्यवान हो जावे तो सब दीन दरिद्रियों को भी वैराग्यवान कहना चाहिए पर ऐसा तो नहीं कहते है। इन्ही युक्तियों से सिद्ध होता है कि नंगा रहने और मांगकर खानेवाले का नाम वैराग्यवान् नहीं ।
यदि कहो कि विचारपूर्वक नंगे रहनेवाले का नाम वैराग्यवान है तो यह भी वार्ता शास्त्रविरुद्ध है क्योंकि विचार के साथ इस वार्ता का विरोध आता है। जहां पर प्रकाश रहता है वहाँ पर तम नहीं रहता । ये दोनों जैसे परस्पर विरोधी है वैसे ही सत्वगुण का कार्य-सत्य और मिथ्या का विवेचनरूपी विचार है और तमोगुण का कार्य नंगा रहना है । देखिये- वर्ष के बारहों महीनों में नंगे रहनेवालों के शरीर को कष्ट होता है । सर्दी के मौसम में सर्दी के मारे उनके होश बिगड़ते है और उनके हृदय में विचार उत्पन्न भी नहीं हो सकता है एवं गर्मी और बरसात में मच्छर काट-काट खाते है । अतः सदैव उनकी वृत्ति दुःखाकार बनी रहती है, विचार का गंधमात्र भी नहीं रहता है तथा श्रुति से भी विरोध आता है-
आत्मानं चेद्विजानियाद्यस्मीति पुरुष: ।
किमिच्छन् कस्य कामाय शरीरम नुसञ्ज्वरेत ॥ १॥
यदि विद्वान ने आत्मा को जान लिया कि यह आत्मा, ब्रह्म मैं ही हूँ तब किसकी इच्छा करता हुआ और किस कामना के लिए शरीर को तपावेगा किन्तु कदापि नहीं तपावेगा और ‘गीता’ में भी भगवान ने इसको तामसी ताप लिखा है । इसी से साबित होता है कि नंगे रहनेवाले का नाम वैराग्यवान् नहीं है और नंगे रहने का नाम वैराग्य नहीं है किन्तु केवल मूर्खों को पशु बनाने के वास्ते नंगा रहना है एवं सकामी इस तरह के व्यवहार को करता है, निष्कामी नहीं करता है तथा जड़ भरतादिकों को अपने पूर्वजन्म का वृतांत याद था ।
एक मृगी के बच्चे के साथ स्नेह करने से उनको मृग के तीन जन्म लेने पड़े थे, इसी वास्ते वे संगदोष से डरते हुए असंग होकर रहते थे ।
पंचदशी में लिखा है-
नह्याहारादि संत्यज्य भारतादि: स्थित: क्वचित् ।
काष्ठपाषाणवत् किन्तु सङ्ग्भीत्या उदास्यते ॥२॥
जड़भरतादिक खान-पहरान आदिकों को त्याग करके कहीं भी नहीं रहे है किन्तु पत्थर और लकड़ी कि तरह जड़ होकर संग से डरते हुए उदासीन हो करके रहे है। जब तक देह के साथ आत्मा का तादात्म्य-अध्यास बना है तब तक तो नंगा रहना दुःख का और मूर्खता का ही कारण है। जब अध्यास नहीं रहेगा तब इसको नंगे रहने से दुःख भी नहीं होगा। आत्मा के साक्षात्कार होने से, जब मन उस महान ब्रह्मानन्द में डूब जाता है तब शरीरादिकों के साथ अध्यास नहीं रहता है और न विशेष करके संसार के पदार्थों का उस पुरुष को ज्ञान रहता है। मदिरा करके उन्मत्त को जैसे शरीर की और वस्त्रादिकों की खबर नहीं रहती है वैसे ही जीवन्मुक्त ज्ञानी कि वृत्ति केवल आत्माकार रहती है। उसको भी शरीरादिकों कि खबर नहीं रहती है, ऐसी अवस्था जीवन्मुक्त कि लिखी हुई है। मुमुक्षु वैराग्यवान कि नहीं लिखी क्योंकि उसको संसार के पदार्थों का ज्ञान ज्यों का त्यों बना रहता है। संसार के पदार्थों में दोष-दृष्टि और ग्लानि का नाम ही वैराग्य है और खोटे पुरुषों के संग से डरकर महात्माओं का संग करने वाला क्षमा, कोमलता, दया और सत्यभाषणादिक गुणों को अमृतवत पान करने अर्थात धारण करने वाले का नाम वैराग्यवान है और वही ज्ञान का अधिकारी है ॥२॥
अष्टावक्रजी जनकजी के प्रति वैराग्यी के स्वकरूप को कहकर राजा के द्वितीय प्रश्न के उत्तर को कहते है-
मूलम्
न पृथिवी न जलं नाग्निर्न वायुर्द्यौर्न वा भवान् ।
एषां साक्षिणमात्मा्नं चिद्रूप विद्धि मुक्तये ।। 3।।
अर्थ - तू न पृथ्वि है न जल है न अग्नि है न वायु है न आकाश है पर मुक्ति के लिये इन सबका साक्षी चैतन्यहरूप अपने को जान ।।
व्याख्या
दूसरा प्रश्न राजा का यह था कि पुरूष आत्म ज्ञान को कैसे प्राप्त होता है अर्थात ज्ञान का स्वरूप क्या है ?
इसके उत्तर में ऋषिजी कहते है कि अनादि काल से देहादिकों के साथ जो आत्मा का तादात्म्य अध्यास हो रहा है उस अध्यास से ही पुरूष देह को आत्मा मानता है और इसी से जन्म मरण रूपी संसार चक्र में पुन: पुन: भ्रमण करता रहता है । उस अध्यास का कारण अज्ञान है । उस अज्ञान की निवृत्ति आत्मज्ञान से होती है और अज्ञान की निवृत्ति से अध्या:स की निवृत्ति भी होती है । इसी वास्ते ऋषिजी प्रथम कार्य के सहित कारण की निवृत्ति का हेतु जो आत्म ज्ञान है, उसी को कहते है- हे राजन् ! तुम पृथ्वि नही हो और न तुम जलरूप हो, न अग्निरूप हो, न वायु रूप हो और न आकाशरूप हो । अर्थात इन पॉंचो तत्वों में से कोई भी तत्व तुम्हारा स्वंरूप नहीं है और पॉंचो तत्वों का समुदायरूप इंद्रियों का विषय जो यह स्थूल शरीर है वह भी तुम नहीं हो क्योंकि शरीर क्षण क्षण में परिणाम को प्राप्त होता जाता है । जो बाल अवस्था का शरीर होता है वह कुमार अवस्था में नहीं रहता है । कुमार अवस्था वाला शरीर युवावस्था में नहीं रहता । युवावस्था वाला शरीर वृद्धावस्थां में नहीं रहता और आत्मा सब अवस्थाओं में एक ही ज्यों का त्यों रहता है । इसी वास्ते युवा और वृद्धावस्था में प्रत्यभिज्ञाज्ञान भी होता है अर्थात पुरूष कहता है कि मैनें बाल्यावस्था में माता और पिता का अनुभव किया । कुमारावस्था में खेलता रहा, युवावस्थां में स्त्री के साथ शयन किया । अब देखिये – अवस्थाऍं सब बदली जाती है पर अवस्था का अनुभव करने वाला आत्मा् नहीं बदलता है किंतु एकरस ज्यों का त्यों ही रहता है । यदि अवस्था के साथ आत्मा भी बदलता जाता तब प्रत्यभिज्ञाज्ञान कदापि नहीं होता क्योंकि ऐसा नियम है कि जो अनुभव का कर्ता होता है वही स्मृति और प्रत्यभिज्ञा का भी कर्ता होता है । दूसरे के देखे हुए पदार्थों का स्मरण दूसरे को नहीं होता है । इसी से सिद्ध होता है कि आत्मा् देहादिकों से भिन्न् है और देहादिकों का साक्षी भी है । हे राजन! उसी चिद्रूप को तुम अपना आत्मा् जानो ।
जैसे घरवाला पुरूष कहता है – मेरा घर है, पलंग है और मेरा बिछौना है और वह पुरूष घर और पलंग आदि से जैसे जुदा है वैसे पुरूष कहता है – यह मेरा शरीर है, ये मेरे इंद्रियादिक है । जो शरीर और इंद्रियों का अनुभव करने वाला आत्मा है वह शरीर, इंद्रियादिकों से भिन्न है और उनका साक्षी है । श्रुति कहती है - अयमात्मा ब्रह़म् । जो यह प्रत्यक्ष तुम्हारा आत्मा है यही ब्रहम् है, यही ईश्वर है ।
अष्टावक्रजी कहते है कि हे जनक ! पृथ्वि आदिक पॉंच भूत और उनका कार्य स्थूल शरीर तथा इंद्रिय और उनके विषय शब्दादिक, इन सबसे तू न्यारा है और सबाक तू साक्षी है, ऐसे निश्चयका नाम ही आत्मज्ञान है ।।3।।
आत्मज्ञान के स्वरूप को अष्टावक्रजी जनकजी के प्रति कहकर अब मुक्ति के स्वरूप तथा उपाय को कहते है ।
Hey, can you tell me the meaning of this word "जड़भरतादिक"? I can't get it anywhere.
ReplyDeleteजड़भरत was enlightened Saint. आदिक means etc
ReplyDeleteCan we have full text of Ashtavkr Geetaji???
ReplyDeleteक्या अष्टावक्र गीताजी का हिंदी में type किया हुआ text मिल सकता है?
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