(देवर्षि नारद का प्रचेताओं को उपदेश : श्रीमदभागवत, चतुर्थ स्कंध, अध्याय ३१ )
इस लोक में मनुष्य का वही जन्म, वही कर्म, वही आयु, वही मन और वही वाणी सफल है, जिसके द्वारा सर्वात्मा सर्वेश्वर श्रीहरि का सेवन किया जाता है | जिनके द्वारा अपने स्वरुप का साक्षात्कार करानेवाले श्रीहरि को प्राप्त न किया जाय, उन माता-पिता की पवित्रता से, यज्ञोपवित-संस्कार से एवं यज्ञ-दीक्षा से प्राप्त होनेवाले उन तीन प्रकार के श्रेष्ठ जन्मों से, वेदोक्त कर्मों से, देवताओं के समान दीर्घ आयु से, शास्त्रज्ञान से, ताप से, वाणी की चतुराई से. अनेक प्रकार की बातें याद रखने की शक्ति से, सांख्य (आत्मानात्मविवेक) से, सन्यास और वेदाध्ययन से तथा व्रत-वैराग्य आदि अन्य कल्याण साधनों से भी पुरुष का क्या लाभ है?
वास्तव में समस्त कल्याणों कि अवधि आत्मा ही है और आत्मज्ञान प्रदान करने वाले श्रीहरि ही सम्पूर्ण प्राणियों की प्रिय आत्मा है | जिस प्रकार वृक्ष की जड़ सिंचने से उसके तना, शाखा, उपशाखा आदि सभी का पोषण हो जाता है और जैसे भोजन द्वारा प्राणों को तृप्त करने से समस्त इन्द्रियाँ पुष्ट होती है, उसी प्रकार श्रीभगवान की पूजा ही सबकी पूजा है | जिस प्रकार वर्षाकाल में जल सूर्य के ताप से उत्पन्न होता है और ग्रीष्म ऋतु में उसी की किरणों में पुनः प्रवेश कर जाता है तथा जैसे समस्त चराचर भूत पृथ्वी से उत्पन्न होते है और फिर उसी में मिल जाते है, उसी प्रकार चेतना-चेतनात्मक यह समस्त प्रपंच श्रीहरि से ही उत्पन्न होता है और उन्ही में लीन हो जाता है | वस्तुतः यह विश्वात्मा श्रीभगवान का वह शास्त्र प्रसिद्द सर्वोपाधिरहित स्वरुप ही है | जैसे सूर्य की प्रभा उससे भिन्न नहीं होती, उसी प्रकार कभी-कभी गन्धर्व-नगर के समान स्फुरित होनेवाला यह जगत भगवान से भिन्न नहीं है; तथा जैसे जाग्रत अवस्था में इन्द्रियाँ क्रियाशील रहती है किन्तु सुषुप्ति में उनकी शक्तियां लीन हो जाती है, उसी प्रकार यह जगत सर्गकाल में भगवान से प्रकट हो जाता है और कल्पांत होने पर उन्ही में लीन हो जाता है | स्वरूपतः तो भगवान में द्रव्य, क्रिया और ज्ञानरूपी त्रिविध अहंकार के कार्यों की तथा उनके निमित्त से ओने वाले भेदभ्रम की सत्ता है ही नहीं | जैसे बादल, अंधकार और प्रकाश- ये क्रमशः आकाश से प्रकट होते है और उसी में लीन हो जाते है; किन्तु आकाश इनसे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार ये सत्व, रज और तमोमयी शक्तियाँ कभी परब्रह्म से उत्पन्न होती है और कभी उसी में लीन हो जाती है | इसी प्रकार इनका प्रवाह चलता रहता है; किन्तु इससे आकाश के समान असंग परमात्मा में कोई विकार नहीं होता | अतः तुम ब्रह्मादि समस्त लोकपालों के भी अधीश्वर श्रीहरि को अपने से अभिन्न मानते हुए भजो; क्योंकि वे ही समस्त देहधारियों के एकमात्र आत्मा है | वे ही जगत के निमित्तकारण काल, उपादानकारण प्रधान और नियंता पुरुषोत्तम हैं तथा अपनी कालशक्ति से वे ही इस गुणों के प्रवाह रूप प्रपंच का संहार कर देते है |
वे भक्तवत्सल भगवान समस्त जीवों पर दया करने से, जो कुछ मिल जाय उसी में संतुष्ट रहने से तथा समस्त इन्द्रियों को विषयों से निवृत्त करके शांत करने से शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते है | पुत्रेषणा आदि सब प्रकार की वासनाओं के निकल जाने से जिनका अंतःकरण शुद्ध हो गया है, उन संतों के ह्रदय में उनके निरंतर बढते हुए चिंतन से खिंचकर अविनाशी श्रीहरि आ जाते है और अपनी भक्ताधीनता को चरितार्थ करते हुए हृदयाकाश की भांति वहां से हटते नहीं | भगवान तो अपने को (भगवान को) ही सर्वस्व मानने वाले निर्धन पुरुषों पर ही प्रेम करते है; क्योंकि वे परम रसज्ञ है – उन अकिंचनों की अनन्याश्रया अहैतु की भक्ति में कितना माधुर्य होता है, इसे प्रभु अच्छी तरह जानते है | जो लोग अपने शास्त्रज्ञान, धन, कुल और कर्मों के मद से उन्मत्त होकर, ऐसे निष्किंचन साधुजनों का तिरस्कार करते है, उन दुर्बुद्धियों की पूजा तो प्रभु स्वीकार ही नहीं कर करते | भगवान स्वरूपानंद से ही परिपूर्ण है, उन्हें निरंतर अपनी सेवा में रहने वाली लक्ष्मीजी तथा उनकी इच्छा करने वाले नरपति और देवताओं की भी कोई परवाह नहीं है | इतने पर भी वे अपने भक्तों के तो अधीन ही रहते है | अहो ! ऐसे करुणा-सागर श्रीहरि को कोई भी कृतज्ञ पुरुष थोड़ी देर के लिए भी कैसे छोड़ सकता है ?
No comments:
Post a Comment