सबका मंगल सबका भला हो ! गुरु चाहना ऐसी है !!इसीलिए तो आए धरा पर सदगुरु आसारामजी है !!
स्नातं तेन सर्व तीर्थम् दातं तेन सर्व दानम् कृतो तेन सर्व यज्ञो.....उसने सर्व तीर्थों में स्नान कर लिया, उसने सर्व दान दे दिये, उसने सब यज्ञ कर लिये जिसने एक क्षण भी अपने मन को आत्म-विचार में, ब्रह्मविचार में स्थिर किया।

Friday, October 22, 2010

वेणु गीत

                 जबकि दोनों भाई राम और कृष्ण गौओं के साथ बंशी बजाते हुए और स्नेह से कटाक्षों की वृष्टि करते हुए वन में प्रवेश कर रहे है तथा ग्वाल-बाल उनके पीछे पीछे चल रहे है, उस समय जिन्होने भगवान के उस अत्यंत सुंदर मुखारविंद का दर्शन पाया, नेत्रों का फल उन्ही नेत्रधारियों को प्राप्त हुआ है | हे सखियों ! नेत्रों का इससे बढ़कर उत्तम फल हम जानती ही नहीं हैं ||
                हे सखि ! गले में आम के नूतन पत्ते, मोरपंख, फूलों के गुच्छे, कुमुद और कमलों से संसक्त माला, नीले और पीले वस्त्रों से विचित्र राम और क़ृष्ण गोपसमूहों के मध्य में ऐसी शोभा पाते है, जैसी रंगमंच में गायन करते हुए दो श्रेष्ठ नट शोभा पाते हैं ||
                हे सखि ! न जाने इस बंशी ने क्या पुण्य किया जो गोपियों के भोग्य दामोदर के अधरामृत का स्वच्छंदतापूर्वक पान कर रही है, वह भी सब का सब पी जाती है, तनिक भी नहीं रहने देती | जिन सरोवरों के जल मे यह पुष्ट हुई वे सरोवर भी खिले हुए कमलसमूहों के बहाने रोमांचयुक्त दिखते है और जिन वृक्षोंके कुल में यह पैदा हुई वे वृक्ष भी मधु की धाराओं के रूपसे आनंदके आँसू बहाते हुए दिखते है, जैसे कि कुलवृद्ध पुरुष यह सुनते ही अश्रुपात करते है कि हमारे वंश मे कोई भगवद्भक्त हुआ है, वैसे ही उपर्युक्त सरोवर और वृक्षों कि दशा हो रही है ||
              हे सखि ! वृंदावन कि भूमि कि कीर्ति को स्वर्ग से भी अधिक बढ़ाता है क्योंकि इसे देवकीनन्दन भगवान के चरण-कमलों से सुशोभित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, इसमे गोविंद कि बंशी सुनकर मयूर मत्त होकर नृत्य कर रहे है और उनका नृत्य देखकर पर्वतों कि चोटियों पर रहने वाले समस्त जीव मारे आनंद के निश्चेट हो रहे है ||
              हे सखि ! तिर्यक योनि में उत्पन्न हुई जड्बूद्धि वाली होती हुई भी ये हिरनियाँ धन्य है जो वेणु का शब्द सुनकर विचित्रेय वेषधारी नंदनंदन को अपने अपने पतियों के साथ अपने प्रीतियुक्त अवलोकन से पुजा करती है ||
(श्रीमदभागवत स्कन्ध 10, अध्याय 21)

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